'नई कहानी' के अंदर निर्मल वर्मा उन कहानीकारों में हैं जिनकी भावों की संरचना
के केंद्र में शहरी जीवन है। निर्मल वर्मा की कहानियों की विषय-वस्तु राजेंद्र
यादव, मोहन राकेश एवं कमलेश्वर की तरह ही मध्यवर्गीय शहरी युवा वर्ग की
समस्या, प्रेम एवं परिवार के अंदर की टूटन है। वृहत संदर्भ में निर्मल वर्मा
की कहानियाँ स्वतंत्रता-संघर्ष के दौरान बनी उम्मीद एवं उसकी परिणति से जुड़ती
हैं। 'नए कहानीकार आजादी की आदर्शवादी उपलब्धि के दौरान किशोरावस्था से गुजर
रहे थे, और उनकी चेतना में आजादी के बाद जीवन की एक आशा भरी तसवीर थी। लेकिन
निरी कल्पना और रोमान के रंगों से बनी इस तसवीर का रंग थोड़े ही दिन में उड़ गया
और नए लेखक तेजी से अपने परिवेश के प्रति जागरूक हुए। जिंदगी की वास्तविकताओं
ने उन्हें आ घेरा, क्योंकि आदर्शों की यात्रा के लिए किसी अगली मंजिल की
आकांक्षा पूरे समाज की चेतना में नहीं बन सकी।'1 यात्रा की अगली
मंजिल न होने के कारण भटकाव एवं टूटन की जो स्थिति बनी, वह निर्मल वर्मा में
भी है। लेकिन निर्मल वर्मा में वस्तु एवं अभिव्यक्ति दोनों ही स्तरों पर एक
किस्म का आभिजात्य है।2 उनकी कहानियों की स्थितियाँ सामान्य भारतीय
मध्यवर्ग की स्थिति से मेल नहीं खातीं। पीड़ा एवं यंत्रणा की भी अलग स्थिति है।
उनके इस भाव-बोध के निर्माण के पीछे उनके विदेश प्रवास की भी भूमिका थी।
राजेंद्र यादव के अनुसार, "निर्मल उस समय विदेशों में थे और अपने समाज या
विचारों की उस रोज-रोज की रगड़ से मुक्त थे जो हमें न अपने भीतर रहने दे रही थी
न बाहर। बारों, पबों और पार्कों में भटकते युवा निर्मल चियांती पीते और बाख,
बिठोविन या ह्यूबर्ट की सिंफनियाँ सुनते अपने भीतर के ध्वंस को समझने की कोशिश
कर रहे थे। उनके पास सिर्फ स्मृतियाँ थीं, निजी अतीत था और एक अनसमझा,
अनसुलझा, अचानक अपरिचित हो गया संसार था।"3 यही कारण है कि निर्मल
वर्मा के यहाँ भारतीय समाज की परिचित स्थिति का अभाव है। पात्रों का व्यवहार
विशिष्ट है। 'एक दिन का मेहमान' में अलग-अलग रह रहे पति-पत्नी एक साथ बैठकर
शराब पी लेते हैं, लेकिन उनके बीच संबंध की कोई ऊष्मा शेष नहीं बची है :
"'मैं सिर्फ बच्ची से नहीं...' वह हकलाने लगा, 'मैं तुमसे भी मिलने आया था।'
'मुझसे?' औरत के चेहरे पर हँसी, हिकारत, हैरानी एक साथ उमड़ आईं,
'तुम्हारी झूठ बोलने की आदत नहीं गई!'
...
'कुछ भी। मैं तुम्हारी तरह अकेली नहीं रह सकती; लेकिन अब इस उम्र में... अब
मुझे कोई देखता भी नहीं।'
'वक्कू...।' उसने हाथ पकड़ लिया।
'मेरा नाम मत लो... वह सब खत्म हो गया।"4
निर्मल वर्मा की कहानियों का मुख्य विषय मानवीय संबंध है। 'इनकी कहानियाँ घने,
गहरे प्रेम की, मनुष्य की अपूर्णता और अतृप्ति की, पूर्णता की लालसा और
मानव-संबंधों में निरन्तर चल रहे आकर्षण-विकर्षण की गाथाएँ हैं।'5
हाँ, यह जरूर है कि कहानियों में प्रायः आकर्षण की स्थितियाँ बीत चुकी हैं।
यदि 'सुबह की सैर' जैसे एकाध संदर्भ को छोड़ दें जिसमें पत्नी की मृत्यु एवं
बेटे के विदेश चले जाने के बाद 'उनके' पास सिर्फ कट्टो की स्मृति बची है,
अन्यथा निर्मल वर्मा की ज्यादातर कहानियों में विकर्षण की स्थिति है। 'पिछली
गर्मियों में', 'बीच बहस में', 'अंतर' आदि अनेकों कहानियों में विकर्षण की
स्थिति है। 'बीच बहस में' कहानी संबंधों में आती दूरी को पारिवारिक स्तर पर
दर्शाती है, तो 'अंतर' में यही दूरी प्रेमी एवं प्रेमिका के बीच बनती है।
'अंतर' में सतह के ऊपर प्रेम है, पर अंदर से गहन विक्षोभ की स्थिति है। कहानी
में प्रेमिका अपनी मर्जी के बिना प्रेमी के कहे अनुसार गर्भपात कराती है। उसका
प्रेमी उससे मिलने आता है, वह इटली घूमने का कार्यक्रम बनाता है, पर प्रेमिका
इन सबमें अपनी ओर से शामिल नहीं है। प्रेमी के जाने के बाद की उसकी हरकत उसकी
मानसिक स्थिति को दर्शाती है :
"वह चुपचाप बिस्तर के पास चली आई। अपने सूटकेस से एक पुराना तौलिया निकाला।
फिर उसमें करीने से उन सब चीजों को लपेटा, जो वह उसके लिए छोड़ गया था। खिड़की
के पास आकर उसने उन्हें बाहर अँधेरे में फेंक दिया।"6
निर्मल वर्मा की कहानियों में समय एवं समाज ऐतिहासिक रूप से नहीं आता है।
मार्कण्डेय के अनुसार, "एक ओर निरे वर्तमान की सृष्टि, दूसरी ओर परिवेश के
प्रति आक्रांत एवं भयग्रस्त दृष्टि, निराशा, इसलिए भविष्य के प्रति उदासीनता,
साथ ही लेखक के दायित्व के प्रति एक अस्पष्ट बोध आदि कुछ ऐसे सत्य हैं, जो
स्पष्ट करते हैं कि निर्मल सामाजिक विकास की ऐतिहासिक कड़ियों को तोड़कर काल की
निरपेक्ष सीमाओं में आबद्ध होते जा रहे हैं।"7 निर्मल वर्मा की
कहानियों में पात्रों का बाहरी दुनिया से संघर्ष बहुत कम है। यद्यपि उनकी
कुछेक कहानियाँ बेरोजगारी पर हैं, लेकिन उनमें भी संबंधगत पक्ष हावी है। इस
लिहाज से 'लंदन की एक रात' एक महत्वपूर्ण कहानी है। इसमें संबंधगत
आकर्षण-विकर्षण का घनीभूत ढाँचा नहीं है जो निर्मल वर्मा की कहानियों की मुख्य
पहचान है, उसके बजाय इस कहानी में प्रवासी युवाओं की विकल्पहीनता केंद्र में
है। इस कहानी में लंदन में विदेशी लोगों को काम न मिलने की स्थिति का वर्णन
किया गया है। यह कहानी बेरोजगारों की हताशा एवं नस्लीय भेद-भाव की स्थिति को
सामने लाती है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से शोषण एवं बर्बरता के बावजूद इसके
पात्रों में प्रतिरोध पैदा नहीं होता। 'एक ऐसा ठोस और अभेद्य आतंक पूरे परिवेश
पर छाया हुआ है, जिसमें निःसहायता का पीड़ा-बोध उस गहन चुप्पी को तोड़कर अपने
अस्तित्व की घोषणा करता दिखाई और सुनाई देता है। यहाँ आतंक तो है, लेकिन उससे
मुक्ति की किसी चेष्टा का कोई संकेत नहीं है। वे सबके सब एक ऐसी मारक और काफी
कुछ अविस्मरणीय-सी उदासीनता के शिकार हैं, जिनकी प्रतिरोध-चेतना पूरी तरह
प्रसुप्त पड़ी है।'8 बेरोजगारी का संदर्भ 'पिक्चर पोस्टकार्ड',
'सितंबर की एक शाम', 'माया का मर्म' आदि कहानियों में भी मिलता है। 'पिक्चर
पोस्टकार्ड' के युवा आर्थिक रूप से संघर्ष की स्थिति में हैं। लेकिन संघर्ष की
कोई दिशा नहीं है। कहानी में नीलू परेश की प्रेमिका है, नीलू का अपने प्रेमी
से ठंडा व्यवहार है। वह उसे पेपर का प्रतिनिधि बनकर बाहर चले जाने को तथा वहाँ
से पिक्चर पोस्टकार्ड भेजने को कहती है। यह पूरी स्थिति संबंधों के उथलेपन को
दर्शाती है।
'सितंबर की एक शाम' का युवक पारिवारिक उपेक्षा को सहते हुए आर्थिक जद्दोजेहद
से गुजर रहा है। पिता से उसका टकराव है और जिस शहर में वह रह रहा है, वहाँ
उसकी बहन भी रहती है। लेकिन उसमें भी कोई संवेदना नहीं है :
"अगर घर छोड़कर भागना था, तो इस शहर में क्यों आए। माँ की चिट्ठियाँ आती है,
तुम्हारे जीजाजी परेशान होते हैं, मुझे कोसते हैं। बताओ, मैं क्या करूँ? जब तक
यहाँ, इस शहर में रहोगे, मुझसे छुटकारा नहीं मिलेगा।"9
उसकी बहन बच्ची उसे वापस लौट जाने के लिए रेल का किराया देती है, पर उस पैसे
से वह एक बाजारू औरत के पास चला जाता है। नामवर सिंह इस कहानी को संभावना एवं
व्यर्थता के अंतर्विरोध के रूप में देखते हैं, "'उसने आँखे उठाईं... सारी
दुनिया उसके सामने पड़ी थी और उसकी उम्र सत्ताइस वर्ष की थी।' यह एक वाक्य बहुत
कुछ कह देता है; एक वाक्य में आज का सारा अंतर्विरोध झलक उठता है। संभावना एवं
व्यर्थता का अंतर्विरोध।"10
समाज की उपस्थिति निर्मल वर्मा की कहानियों में क्षीण है। वहाँ समाज इसी रूप
में है कि वे जिस परिवार या व्यक्तियों की कहानियाँ लिखते हैं, वह समाज का ही
अंग है। 'निर्मल वर्मा की कहानियों का व्यक्ति समाज का अंग होते हुए भी उससे
प्रायः असंपृक्त होता है। समाज में उसकी संलग्नता औपचारिक से अधिक नहीं होती।
ऐसे ही व्यक्तियों की पीड़ा, अवसाद, निराशा, अंतर्विरोध, उत्तरदायित्व शून्य
मानसिकता, स्वप्निल संवेदना, परिस्थितियों से उत्पन्न जटिल और अव्याख्येय
मनःस्थिति, परिस्थितियों से उत्पन्न अवसाद और अकेलापन आदि का अंकन परिंदे की
कहानियों में हुआ है।'11 बल्कि बाद के संग्रहों में भी कमोबेश उनकी
यही स्थिति बनी रहती है। प्रेम, टूटन, अकेलापन एवं अवसाद, यही उनकी कहानियों
में लगातार बना रहता है। 'निर्मल वर्मा अपनी रचनाशीलता और चिंतन में बेहद
नीरंध्र (कंसिस्टेंट) लेखक हैं - वहाँ कहीं खाइयाँ एवं दरारें नहीं हैं; एक
अंतर्ग्रथित (इंटिग्रेटेड) व्यक्तित्व है। लगता है एक समग्र और संपूर्ण सेल्फ
(आत्म) है और विभिन्न विधाओं में अपने को अभिव्यक्ति कर रहा है।'12
निर्मल की कहानियों में पूरा जोर कहानी के प्रभाव पर रहता है। चूँकि थोड़े-बहुत
अंतर से प्रायः सभी कहानियों की अंतिम स्थिति एक-सी रहती है, इस कारण से यह
प्रभाव भी एक-सा रहता है। नामवर सिंह के अनुसार, "यह सही है कि निर्मल वर्मा
की कहानियाँ गहरा प्रभाव छोड़ जाती हैं यहाँ तक की तमाम कहानियाँ एक-सा प्रभाव
छोड़ती हैं और यह भी सही है कि इस प्रभाव के आगे न चरित्र याद रहते हैं और न
घटनाएँ। ...चरित्र वहीं याद आते हैं जहाँ भाव कमजोर होता है और शिल्प प्रबल,
दूसरे शब्दों में, जहाँ कहानी के ढाँचे में दरार रहती है। और साफ है कि ऐसी
दरारों वाली कहानी अभिष्ट प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सकती।'13
यहाँ यह कहना सही है कि निर्मल वर्मा की कहानियाँ प्रभाव-सक्षम होती हैं,
चूँकि स्थितियों के ढाँचे में खास अंतर नहीं होता, इस कारण सभी स्थितियाँ,
घटनाएँ याद नहीं रहतीं, परंतु इसके साथ यह भी सच है कि प्रभाव सक्षमता का
संबंध चरित्र एवं घटनाओं के विस्मरण से नहीं है। शेखर जोशी की 'कोसी का घटवार'
का गुसांई यादगार चरित्र है, साथ ही कहानी भी प्रभाव-सक्षम है।
निर्मल वर्मा की कहानियों की संवेदना प्रेम, अकेलापन एवं पारिवारिक टूटन के ही
विभिन्न रूपों से निर्मित है। इनकी कुछ कहानियों में मूल्यगत बदलाव भी देखने
को मिलता है। 'वीकएंड' में पुरुष विवाहित है, बच्चे वाला है, प्रेमिका वीकएंड
में आती है और वीकएंड बिताकर चली जाती है, कहानी में परंपरागत दांपत्य पर
प्रेमिका की टिप्पणी है :
"मुझे उन दंपतियों पर हमेशा हैरानी होती है, जिन्हें एक दिन के बाद दूसरे दिन
भी साथ रहना पड़ता है - वे कैसे उन भूरे रंग के खाली अंतरालों को जोड़ पाते
होंगे, जिनसे देह की उत्सुकता और पीड़ा उपजती है... वहीं सोए हुए बिस्तरों की
आत्मीयता मेरे लिए नहीं है... ये उन फैसलों की तरह हैं, जिनसे परिवार बनते
हैं।"14
मूल्य के स्तर पर दायित्वविहीन, सिर्फ भोगपूर्ण संबंध की स्थिति इस कहानी में
दिखाई देती है। यह पारिवारिकता के ह्रास को दर्शाती है। 'वीकएंड' के पीछे छिपा
यह निर्बंध उल्लास, घर-परिवार की बँधी जिंदगी से भिन्न एक दायित्वशून्य जीवन
का ही पर्याय बन जाता है।'15
निर्मल वर्मा ने नई कहानी के संदर्भ में कहा है, "...अगर नई कहानी कुछ हो सकती
है तो सिर्फ - अँधेरे में चीख! मदद माँगने के लिए नहीं - बल्कि मदद की हर
संभावना को, हर गिलगिले समझौते को झुठलाने के लिए। अपने को पूर्ण रूप से इस
'टेरर' से संपृक्त कर पाना - यहाँ से लेखक का कमिटमेंट आरंभ होता है।' 16 निर्मल वर्मा की कहानियों में यही चीख दिखाई देती है। 'परिंदे',
'अंतर', 'टर्मिनल' आदि प्रेम कहानियों में टूटन की ही स्थिति है। 'परिंदे' में
अंतहीन प्रतीक्षा एवं दिशाशून्यता है। छुट्टी आने पर हॉस्टल से सभी परिंदे की
भाँति झुंड में चले जाते हैं, लेकिन लतिका के लिए अंतहीन प्रतीक्षा एवं उदासी
है। उसका प्रेमी मेजर नेगी मारा जाता है। वह पूर्णतः अकेली है। निर्मल वर्मा
की कहानियों में अंतहीन प्रतीक्षा को नामवर सिंह समय के मिजाज से जोड़ते हैं,
"निर्मल की यह प्रतीक्षा इतनी विशद है कि प्रेम की कहानी में भी प्रेम-भावना
का अतिक्रमण कर जाती है और अपने विस्तार में संपूर्ण मानव नियति का प्रश्न बन
जाती है। निर्मल की पैनी दृष्टि भली भाँति देखती है कि एक प्रश्न है जिसका
सामना युवक भी कर रहा है और युवती भी। इसकी काली छाया एक ओर बेरोजगारी की शक्ल
में दिखाई पड़ती है तो दूसरी ओर प्रेम के निजी क्षेत्र को भी ग्रस रही है।" 17
निर्मल वर्मा की कहानियों में अकेलापन का एक-सा माहौल है। 'धूप का एक टुकड़ा',
'दूसरी दुनिया', 'पराये शहर में', 'डेढ़ इंच ऊपर', 'सुबह की सैर' 'सूखा' आदि
ऐसी ही कहानियाँ है। अरुण कमल के अनुसार, "निर्मल वर्मा अकेलेपन के नहीं,
अकेलेपन के भय के रचनाकार हैं। व्यक्ति की अपूर्णता के शोक के, पूर्णता की
अविराम लालसा के, निरंतर खोते-जाते भाव-अवलंबों से उत्पन्न असुरक्षा-बोध के।
समुद्र के हलफे की तरह बार-बार हमें जीवन के भीड़ भरे तट पर फेंकते।" 18 हालाँकि जीवन के प्रति रागात्मक लगाव उनकी कहानियों में कम ही
दिखाई देता है। प्रायः ही कहानी अकेलापन या संत्रास का भाव छोड़ जाती है।
'तीसरा गवाह' में तीसरे गवाह मास्टर साहब के समय से न पहुँचने के कारण रोहतगी
एवं नीरजा की शादी नहीं हो पाती। फिर नीरजा शहर से चली जाती है और रोहतगी
अकेले रह जाते हैं। 'दूसरी दुनिया' में 'मैं' का अकेलापन पार्क में खेलने वाली
बच्ची ग्रेता के पिता के साथ चले जाने पर बढ़ जाता है।
निर्मल वर्मा की कहानियों में पारिवारिक स्तर पर भी टूटन हर कहीं मौजूद है।
'धागे', 'पिछली गर्मियों में', 'दो घर', 'बीच बहस में' 'कव्वे और काला पानी'
आदि अनेक कहानियों में इसे देखा जा सकता है। 'कव्वे और काला पानी' में घर का
बड़ा लड़का घर छोड़कर चला जाता है। एक दिन परिवार को उसके द्वारा भेजे गए
पोस्टकार्ड से पता चलता है कि वह जिंदा है। उसका छोटा भाई उसके पास पहुँचता
है, पर यह यात्रा पारिवारिक झंझट के निबटारे के लिए है। 'धागे' में पति-पत्नी
के बीच संबंधों के धागे टूट गए हैं। 'पिछली गर्मियों में' शीर्षक कहानी में
तीन वर्ष बाद घर आए निंदी का परिवार से ठंडा संबंध दिखाई देता है।
निर्मल वर्मा की अनेक कहानियाँ विदेशी पृष्ठभूमि पर हैं। उदाहरणस्वरूप 'लंदन
की एक रात', 'पराये शहर में', 'एक शुरुआत', 'अमालिया' 'छुट्टियों के बाद' आदि।
इन कहानियों में भी वे प्रेम, परिवार, अकेलापन, हताशा आदि को ही चित्रित करते
हैं।
भावों की संरचना की तरह निर्मल वर्मा की अभिव्यक्ति की संरचना में भी उनकी
मुखर निजी छाप है। इस दृष्टि से निर्मल वर्मा हिंदी कहानी में उन गिने-चुने
कहानीकारों में हैं, जिन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का बिल्कुल निजी, आत्मपरक और
विशिष्ट मुहावरा निर्मित किया है। 'उनके यहाँ चरित्र, वातावरण, कथानक आदि का
कलात्मक रचाव है। कलात्मक रचाव स्वयं रूप के विविध तत्वों के अंतर्गत, फिर
वस्तु और रूप के बीच तथा स्वयं वस्तु के अंतर्गत। पात्र इसलिए याद नहीं आते कि
वे परिस्थितियों के अंग हैं।'19
नई कहानी के सामान्य रुझान की तरह कथानक का ह्रास निर्मल वर्मा की कहानियों
में भी है। निर्मल वर्मा की अनेकों कहानियाँ हैं जो सिर्फ किसी एक स्थिति या
मूड के इर्द-गिर्द बुनी गई हैं। निर्मल वर्मा के यहाँ 'रंग, गंध, स्पर्श की
ऐंद्रिक गतियों से बढ़ती हुई, कहानी प्रायः मन के कोने में छिपे उस चुप आर्तनाद
को ढोने और लिखने की कोशिश करती हैए जिसे हम अपने घनघोर अकेलेपन में अपनी
शिराओं में बजता हुआ पाते हैं।'20 निर्मल वर्मा में भावों की
अभिव्यक्ति की यह खास विशिष्टता है। 'दूसरी दुनिया' कहानी में 'मैं' ग्रेता के
चले जाने की सूचना पाकर अकेला पड़ गया है। तब उसकी स्थिति कुछ इस प्रकार है :
"...फिर काफी देर तक बेंच पर बैठा रहा। मुझे कहीं नहीं जाना था, न ही
प्रतीक्षा करनी थी। धीरे-धीरे पेड़ों के ऊपर तारे निकलने लगे। मैंने पहली बार
लंदन के आकाश में इतने तारे देखे थे, साफ और चमकीले, जैसे बारिश ने उन्हें धो
डाला हो।"21
अपनी कहानियों में निर्मल वर्मा भावों को सीधे अथवा स्थूल रूप से व्यक्त न
करके उसके सूक्ष्मतर स्तर तक जाते हैं :
"...चारों ओर देखा। कोई न था। न कोई आवाज, न खटका सिर्फ पेड़ों की शाखाएँ हवा
में डोल रही थीं। उस समय एक पगली-उत्कट नंगी-सी, आकांक्षा मेरे भीतर जगने लगी
कि यहीं बैठ जाऊँ।"22
निर्मल वर्मा की कहानियाँ प्रायः स्मृति से जन्म लेती हैं। इसलिए कहानियों का
संस्मरणात्मक स्वरूप उनकी शिल्पगत विशिष्टता बन जाती है। 'लंदन की एक रात'
'जलती झाड़ी', 'कव्वे और काला पानी', 'डायरी का खेल' आदि अनके कहानियाँ
संस्मरणात्मक है।
निर्मल वर्मा के कहानी-शिल्प का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है उनका परिवेश चित्रण।
'वे अपनी कहानियों में एक स्वतंत्र, अवास्तविक और काफी कुछ अलौकिक किस्म के
संसार की सृष्टि करते हैं, उसमें अंकित परिवेश के द्वारा ही वे उसे वास्तविक
एवं मूर्त्त बनाने का प्रयास करते हैं। वस्तुतः इस परिवेश से ही उनकी कहानियों
को वास्तविकता का ऐसा आधार मिलता है जिसके अभाव में उन्हें बड़ी आसानी से खारिज
करने की छूट मिल सकती थी।'23 'लंदन की एक रात में' काम पाने का
संघर्ष है, उसका वर्णन करते हुए निर्मल वर्मा लिखते हैं :
"...सोचा था, आज मैं जल्दी आ गया हूँ और गेट पर मेरे अलावा कोई दूसरा नहीं
होगा। किंतु मेरा अनुमान सही न था। वहाँ पहले से ही बीस पच्चीस बेरोजगारों की
भीड़ जमा थी। ...उन सब की आँखें मुझ पर उठ आईं, खामोश और तनी हुई। मुझे लगा उस
खामोशी में एक अजीब सा भय उभर आया है, मेरे प्रति उतना नहीं जितना उस अज्ञात
नियति के प्रति, जिसका निर्णय अगले चंद लमहों में होने वाला था।"24
'एक दिन का मेहमान' में पत्नी की पीड़ा को दर्शाते हुए निर्मल वर्मा लिखते हैं
:
"वह रो रही थी; बिल्कुल निस्संग, जिसका गुजरे हुए आदमी और आने वाली उम्मीद -
दोनों से कोई सरोकार नहीं था। आँसू, जो एक कारण से नहीं, पूरा पत्थर हट जाने
से आते हैं, एक ढलुआ जिंदगी पर नाले की तरह बहते हुए; औरत बार-बार उन्हें अपने
हाथ से झटक देती थी..."25
निर्मल वर्मा की कहानियों में बिंब एवं प्रतीक का महत्वपूर्ण स्थान है। कई
कहानियों के शीर्षक प्रतीकात्मक है। 'जलती झाड़ी' काम उद्दीप्तता का प्रतीक है।
'धागे' में धागा संबंध का प्रतीक है, जो टूट रहा है। 'सूखा' में सूखा जिंदगी
की नीरसता का प्रतीक है। डॉ. देव अपनी जिंदगी की नीरसता से ऊब गए हैं। 'माया
दर्पण' में दर्पण संबंधों की भंगुरता का प्रतीक है।
निर्मल वर्मा की कहानियों में प्रतीकों एवं बिंबों की खास विशिष्टता है। उनके
बिंब उनकी पहचान हैं :
"फाटक के पास चाँदनी में मेरी छाया लॉन के आर-पार खिंच गई है। लगता है, रात
सफेद है, बंगले की छत, दूर पहाड़ी के टीले, घास पर एक-दूसरे को काटती छायाएँ...
सब कुछ सफेद हैं। घास के तिनके अलग-अलग नहीं दीखते... एक हरा सा धब्बा बनकर
पेड़ों के नीचे वे एक-दूसरे के संग मिल गए हैं।" - 'धागे'26
'वीकएंड' में प्रेमिका के द्वारा हर सप्ताह आने और लौटने की प्रतीकात्मक
अभिव्यक्ति है :
"...और वे तीन चिनार के पेड़, जहाँ पहले पत्ते थे, वे अब खाली हैं। फिर वसंत के
दिन आएँगे और मैं अगली गर्मियों की प्रतीक्षा करूँगी, उसके बाद पतझर और
सर्दियों के छोटे, धुँधले दिन..."27
प्रायः निर्मल वर्मा के बिंब एवं प्रतीक भावों को सघन करते हैं। लेकिन कई बार
वह अनजान लोक की रहस्यमय गाथा सी लगती है :
"...सब कुछ भीगी धूप के काँपते, सिहरते आँचल पर नीली धुंध की चिप्पियों-सा उड़
रहा है। सपनों की बासी गंध मानो तितली के रंगीन परों से बूँद-बूँद ढुरक कर
विस्मृति की कब्रों पर उगी हुई पीली घास में खो गई है... जहाँ कुछ फूल उग आए
हैं, भीगे से फूल...।"28 - 'माया का मर्म'
निर्मल वर्मा की कहानियों की भाषा प्रायः काव्यात्मक हो जाती है :
"गलियारे में सन्नाटा था। सिर्फ जब कभी रात की सिस्टर टॉर्च लेकर गुजरती, आलोक
का एक दायरा मरीजों की बेचैन साँसों को समेटता हुआ आगे बढ़ जाता।"29
- 'बीच बहस में'
निर्मल वर्मा ने भावों के लिए बिल्कुल नए तरीके से उपमान लिए हैं :
"लगता था जैसे हम लोग सूखे पत्तों से, अपने-अपने अकेलेपन से उड़कर बरसों की भूख
के उस खोखल में मिल गए हैं जो अचानक उस शाम हम दोनों के बीच खुल गया था।" 30 - 'तीसरा गवाह'
कई बार कहानियों में मनोभावों का सूक्ष्म अंकन मिलता है :
"...उसे माँ का व्यवहार विचित्र सा लगता है। पहले वह उससे बात-चीत करती थी -
शुरू में। किंतु जब उसके जाने के दिन पास आ गए हैं, वह चुप रहने लगी है। बोलती
अब भी है, लेकिन कुछ आतंकित भाव से और उन्हीं बातों को दुहराती है जिन्हें वह
पहले कह चुकी है।"31 - 'पिछली गर्मियों में'
निर्मल वर्मा की कहानियों में एक खास बात यह दिखाई देती है कि कहानियों में
बीच-बीच में सूत्र के रूप में वे अपनी बात रखते हैं जो प्रायः किसी विचार की
तरह लगता हैः
"...ज्यों ही कोई व्यक्ति हमें छोड़कर चला जाता है, हम उसे अतीत में फेंककर
बदला चुका लेते हैं, बिना यह जाने कि वह अब भी मौजूद है, जीवित है, अपने
वर्तमान में जी रहा है, लेकिन हमारे समय से बाहर है।"32
निर्मल वर्मा की कहानियों में संगीतात्मकता भी शिल्प का महत्वपूर्ण पक्ष है।
नामवर सिंह के अनुसार, "संगीत की जैसी सूक्ष्म संवेदना निर्मल ने व्यंजित की
है, वह नई कहानी की बहुत बड़ी उपलब्धि है।"33 'परिंदे' में कहानीकर
का कथन है :
"...संगीत के सुर मानो एक ऊँची पहाड़ी पर चढ़कर हाँफती हुई साँसों को अबाध
शून्यता में बिखेरते हुए नीचे उतर रहे हैं।"34
संगीत एवं ध्वनि को निर्मल वर्मा प्रकृति से ही लेते हैं :
"तितलियाँ, झींगुर, जुगनू... मीडोज पर उतरती हुई साँझ की छायाओं से पता नहीं
चलता, कौन आवाज किसकी है? दोपहर के समय जिन आवाजों को अलग-अलग करके पहचाना जा
सकता था, अब वे एकस्वरता की अविरल धारा में घुल गई थीं।"35
निर्मल वर्मा के परिवेश के चित्रण में दृश्य, संगीत, भाव सभी कुछ संश्लिष्ट
होकर आते हैं। साथ ही उनकी वाक्यों की शृंखला भी लय में होती हैं। नामवर सिंह
के अनुसार, "निर्मल वर्मा की कहानियाँ नई कहानी के एक और तत्व की सार्थकता की
ओर ध्यान आकृष्ट करती हैं, जिसे अंग्रेजी में 'टेक्सचर' कहते हैं। कहानी में
वाक्यों की शृंखला इतनी लयबद्ध चलती है कि संपूर्ण विन्यास अनजाने ही मन को
संगीत के लहरों पर आरोह-अवरोह के साथ बहाता चलता है।"36
इस प्रकार अपनी खास शैली में वातावरण निर्माण, बिंब-प्रतीक का संशिष्ट प्रयोग,
उपमा एवं सूक्ति का प्रयोग निर्मल वर्मा के शिल्प की विशिष्टता है। निर्मल
वर्मा के शिल्प में संवेदना के साथ ही उनके अभिजात भाव-बोध की निजी विशिष्टता
भी शामिल है। वे मुख्य रूप से उच्च मध्यवर्ग एवं उच्च वर्ग की कहानियाँ लिखते
हैं जिनके यहाँ यदा-कदा आर्थिक संघर्ष तो है, पर ज्यादातर समस्या संबंध के
स्तर पर है। उनकी कहानियों में जिस प्रकार की स्वप्निल भाषा एवं दुनिया का
निर्माण होता है, वह इन वर्गों की आकांक्षा की ही प्रतिध्वनि है।
संदर्भ सूची
1.
मार्कंडेय, कहानी की बात, लोकभारती प्रकाशन, 15-ए, महात्मा गांधी मार्ग,
इलाहाबाद-1, संस्करण 1984, पृ. 18.
2.
'निर्मल वर्मा द्वारा अतिशय अभिजात स्थितियों और उनसे जुड़े परिवेश की विशिष्ट
शब्दावली के प्रयोग के कारण, किसी पाठक ने लक्ष्मीनारायण लाल से उनकी रोचक
तुलना की थी...।" - मधुरेश, नई कहानी : पुनर्विचार, नेशनल पब्लिशिंग हाउस,
2/35, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, संस्करण-1999, पृ. 71.
3.
निर्मल माया, संपादक - मधुकर उपाध्याय, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई
दिल्ली, संस्करण-2007, पृ. 59.
4.
कव्वे और काला पानी (कहानी संग्रह), राजकमल पेपरबैक्स, राजकमल प्रकाशन,1-बी,
नेताजी सुभाष मार्ग दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण-2002, पृ. 159.
5.
अरुण कमल, माध्यम, अंक-21, जनवरी-मार्च, 2006, संपादक - सत्यप्रकाश मिश्र,
हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, 12, सम्मलेन मार्ग, इलाहाबाद, पृ. 13.
6.
जलती झाड़ी (कहानी-संग्रह), निर्मल वर्मा, राजकमल प्रकाशन 1-बी, नेताजी सुभाष
मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण-2000, पृ. 157.
7.
कहानी की बात, पृ. 20.
8.
मधुरेश, नई कहानी : पुनर्विचार, पृ. 82.
9.
परिंदे (कहानी-संग्रह), निर्मल वर्मा, भारतीय ज्ञानपीठ,18 इंस्टीट्यूशनल
एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली-110003, संस्करण -2010, पृष्ठ-102
10.
कहानीः नई कहानी, लोकभारती प्रकाशन,15-ए, महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद-1,
संस्करण -1999, पृ. 53.
11.
गोपाल राय, हिंदी कहानी का इतिहास, भाग-2, राजकमल पेपरबैक्स, राजकमल
प्रकाशन,1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण-2011, पृ.
158-59.
12.
निर्मल माया, पृ. 57.
13
कहानी : नई कहानी, पृ. 55.
14
.
बीच बहस में (कहानी-संग्रह), राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण
1991, पृ. 47.
15
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नई कहानी : पुनर्विचार, पृ. 84.
16
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हिंदी कहानी : पहचान और परख, संपादक - इंद्रनाथ मदान, लिपि प्रकाशन, 1 अंसारी
रोड, नई दिल्ली-2, संस्करण -1992, पृ. 59.
17
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कहानी : नई कहानी, पृ. 62.
18
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माध्यम, जनवरी-मार्च, 2006, पृ. 15.
19
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कहानी नई कहानी, पृ. 56.
20
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प्रभात कुमार त्रिपाठी, निर्मल वर्मा : सृजन और चिंतन, संपादक - डॉ. प्रेम
सिंह, फिफ्थ डायमेन्शन पब्लिकेशन, बी-86, आनंद विहार, दिल्ली-110092, पृ. 124.
21
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कव्वे और काला पानी (कहानी संग्रह), पृ. 40.
22
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वही, पृ. 40.
23
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नई कहानी : पुनर्विचार, पृ. 94-95.
24
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जलती झाड़ी (कहानी-संग्रह), पृ. 106.
25
.
कव्वे और काला पानी (कहानी-संग्रह), पृ. 159.
26
.
पिछली गर्मियों में (कहानी-संग्रह), निर्मल वर्मा, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज,
नई दिल्ली, संस्करण -1979, पृ. 14.
27
.
बीच बहस में (कहानी-संग्रह), पृ. 48.
28
.
परिंदे (कहानी-संग्रह), पृ. 34.
29
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बीच बहस में (कहानी-संग्रह), पृ. 100.
30
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परिंदे (कहानी-संग्रह), पृ. 47.
31
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पिछली गर्मियों में (कहानी-संग्रह), पृ. 124.
32
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कव्वे और काला पानी (कहानी-संग्रह), पृ. 112.
33
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कहानी : नई कहानी, पृ. 34.
34
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परिंदे (कहानी-संग्रह), पृ. 119.
35
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परिंदे (कहानी-संग्रह), पृ. 132.
36
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कहानी : नई कहानी, पृ. 34.